लक्ष्मी मां के बारे में जानकारी :
लक्ष्मी मां हिन्दू धर्म की प्रमुख देवी हैं और इन्हें धन, सम्पदा, शांति, और समृद्धि की देवी मानते है।
लक्ष्मी मां भगवान विष्णु की पत्नी है और पार्वती मां और सरस्वती मां के साथ मिलकर त्रिदेवी का निर्माण करती हैं।
लक्ष्मी मां की उत्पत्ति समुद्र मंथन के दौरान हुई थी।
लक्ष्मी मां को वैष्णववाद में महत्वपूर्ण मानते है।
लक्ष्मी मां की आठ प्रमुख अभिव्यक्तियां हैं जिन्हें अष्टलक्ष्मी कहते है।
लक्ष्मी मां को कमल के सिंहासन पर पद्मासन की मुद्रा में दिखाते है।
लक्ष्मी मां ने द्वापर युग में राधा और रुकमणी के रूप में अवतार लिया था।
लक्ष्मी मां की प्रतिमा में चार हाथ हैं जो हिन्दू संस्कृति के चारों पहलुओं (धर्म, काम, अर्थ, और मोक्ष) के प्रतीक हैं।
लक्ष्मी मां की दीपावली के त्योहार पर गणेश जी सहित पूजा की जाती है। जिसका उल्लेख ऋग्वेद के श्री सूक्त में मिलता है।
लक्ष्मी मां ऋषि भृगु की पुत्री थीं।
लक्ष्मी मां समुद्र मंथन से आठवें रत्न के रूप में समुद्र से कार्तिक अमावस्या के दिन प्रकट हुईं थी।
गायत्री की कृपा से मिलने वाले वरदानों में लक्ष्मी भी है। जिस पर यह अनुग्रह है की वह दरिद्र, दुर्बल, कृपण, असंतुष्ट एवं पिछड़ेपन से ग्रसित नहीं रहता। स्वच्छता एवं सुव्यवस्था के स्वभाव को भी "श्री" कहा गया है। जहाँ सद्गुण होंगे, वहाँ दरिद्रता, कुरुपता टिक नहीं सकेगी।
किसी पदार्थ को मनुष्य के लिए उपयोगी बनाने और उसकी अभीष्ट मात्रा उपलब्ध करने की क्षमता को लक्ष्मी कहते हैं। वैसे प्रचलन में तो लक्ष्मी शब्द सम्पत्ति के लिए प्रयुक्त होता है पर वह चेतना का गुण है जिसके आधार पर निरुपयोगी वस्तुओं को भी उपयोगी बनाया जा सकता है।
लक्ष्मी के लिए एक सम्मानजनक शब्द पृथ्वी की मातृभूमि के रूप में सांसारिक क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है जिसे पृथ्वी माता के रूप में संदर्भित किया है और उसे भु देवी और श्री देवी का अवतार मानी जाती हैं।
महर्षि दुर्वासा के श्राप को फलीभूत करने के लिए जब लक्ष्मी मां ने इस संसार को छोड़ दिया, और समुद्र में निवास करने लगी, तब देवताओं ने लक्ष्मी मां और अमृत के लिए समुद्र मंथन किया था। शरद पूर्णिमा के दिन समुद्र मंथन से लक्ष्मी मां पुनः प्रकट हुई और लक्ष्मी मां ने शरद पूर्णिमा के दिन ही भगवान विष्णु से विवाह किया था।
लक्ष्मी मां की उत्पत्ति जानें :
विष्णु पुराण के अनुसार एक बार एक बार ऋषि दुर्वासा ने इंद्र को फूलों की माला दी लेकिन इंद्र ने उस माला को अपने ऐरावत हाथी के सिर पर रख दिया फिर हाथी ने पृथ्वी लोक में फेंक दिया इससे दुर्वासा ऋषि नाराज हुए और उन्होंने इंद्र को श्राप दिया कि जिस धन समृद्धि के बल पर तुमने मेरी इस भेंट का अनादर किया आज से तुम उस लक्ष्मी से विहीन हो जाओगे।
इस श्राप के कारण तीनों लोकों में हाहाकार मच गया और दानव काफी प्रबल और देवता दुर्बल हो गए, तीनों लोकों पर दानवों का आधिपत्य हो गया ऐसे में इंद्र भगवान विष्णु के पास इस परेशानी का हल करने गए। तब भगवान विष्णु ने कहा कि समुद्र मंथन के जरिए भी "श्री" को फिर से प्राप्त किया जा सकता है और साथ में अमृत मिलेगा जिससे आप अमर हो सकते हैं।
फिर देवताओं ने दानवों के साथ मिलकर क्षीर सागर में समुद्र मंथन किया और समुद्र मंथन से 14 रत्न समेत अमृत और विष की प्राप्ति हुई, इसी दौरान लक्ष्मी मां की भी उत्पत्ति हुई और लक्ष्मी मां को श्रीहरि ने अपनी अर्धांग्नी रूप में धारण किया।
लक्ष्मी मां के 108 नाम जानें :
- प्रकृती
- विकृती
- विद्या
- सर्वभूतहितप्रदा
- श्रद्धा
- विभूति
- सुरभि
- परमात्मिका
- वाचि
- पद्मलया
- पद्मा
- शुचि
- स्वाहा
- स्वधा
- सुधा
- धन्या
- हिरण्मयी
- लक्ष्मी
- नित्यपुष्टा
- विभा
- आदित्य
- दित्य
- दीपायै
- वसुधा
- वसुधारिणी
- कमलसम्भवा
- कान्ता
- कामाक्षी
- क्ष्रीरोधसंभवा, क्रोधसंभवा
- अनुग्रहप्रदा
- बुध्दि
- अनघा
- हरिवल्लभि
- अशोका
- अमृता
- दीप्ता
- लोकशोकविनाशि
- धर्मनिलया
- करुणा
- लोकमात्रि
- पद्मप्रिया
- पद्महस्ता
- पद्माक्ष्या
- पद्मसुन्दरी
- पद्मोद्भवा
- पद्ममुखी
- पद्मनाभाप्रिया
- रमा
- पद्ममालाधरा
- देवी
- पद्मिनी
- पद्मगन्धिनी
- पुण्यगन्धा
- सुप्रसन्ना
- प्रसादाभिमुखी
- प्रभा
- चन्द्रवदना
- चन्द्रा
- चन्द्रसहोदरी
- चतुर्भुजा
- चन्द्ररूपा
- इन्दिरा
- इन्दुशीतला
- आह्लादजननी
- पुष्टि
- शिवा
- शिवकरी
- सत्या
- विमला
- विश्वजननी
- तुष्टि
- दारिद्र्यनाशिनी
- प्रीतिपुष्करिणी
- शान्ता
- शुक्लमाल्यांबरा
- श्री
- भस्करि
- बिल्वनिलया
- वरारोहा
- यशस्विनी
- वसुन्धरा
- उदारांगा
- हरिणी
- हेममालिनी
- धनधान्यकी
- सिध्दि
- स्त्रैणसौम्या
- शुभप्रदा
- नृपवेश्मगतानन्दा
- वरलक्ष्मी
- वसुप्रदा
- शुभा
- हिरण्यप्राकारा
- समुद्रतनया
- जया
- मंगला देवी
- विष्णुवक्षस्स्थलस्थिता
- विष्णुपत्नी
- प्रसन्नाक्षी
- नारायणसमाश्रिता
- दारिद्र्यध्वंसिनी
- देवी
- सर्वोपद्रव वारिणी
- नवदुर्गा
- महाकाली
- ब्रह्माविष्णुशिवात्मिका
- त्रिकालज्ञानसम्पन्ना
- भुवनेश्वरी
लक्ष्मी मां की आरती जानें :
ओम जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता।
तुमको निशिदिन सेवत, हरि विष्णु विधाता॥ ओम जय लक्ष्मी माता...
उमा, रमा, ब्रह्माणी, तुम ही जग-माता। मैया तुम ही जग-माता।।
सूर्य-चंद्रमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता॥ ओम जय लक्ष्मी माता...
दुर्गा रुप निरंजनी, सुख सम्पत्ति दाता। मैया सुख सम्पत्ति दाता॥
जो कोई तुमको ध्याता, ऋद्धि-सिद्धि धन पाता॥ ओम जय लक्ष्मी माता...
तुम पाताल-निवासिनि, तुम ही शुभदाता। मैया तुम ही शुभदाता॥
कर्म-प्रभाव-प्रकाशिनी, भवनिधि की त्राता॥ ओम जय लक्ष्मी माता...
जिस घर में तुम रहतीं, सब सद्गुण आता। मैया सब सद्गुण आता॥
सब सम्भव हो जाता, मन नहीं घबराता॥ ओम जय लक्ष्मी माता...
तुम बिन यज्ञ न होते, वस्त्र न कोई पाता। मैया वस्त्र न कोई पाता॥
खान-पान का वैभव, सब तुमसे आता॥ ओम जय लक्ष्मी माता...
शुभ-गुण मंदिर सुंदर, क्षीरोदधि-जाता। मैया क्षीरोदधि-जाता॥
रत्न चतुर्दश तुम बिन, कोई नहीं पाता॥ ओम जय लक्ष्मी माता...
महालक्ष्मीजी की आरती, जो कोई जन गाता। मैया जो कोई जन गाता॥
उर आनन्द समाता, पाप उतर जाता॥ ओम जय लक्ष्मी माता...
ऊं जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता। तुमको निशदिन सेवत, हरि विष्णु विधाता। ओम जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता।।
दोहा :
महालक्ष्मी नमस्तुभ्यम्, नमस्तुभ्यम् सुरेश्वरि। हरिप्रिये नमस्तुभ्यम्, नमस्तुभ्यम् दयानिधे।।
पद्मालये नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं च सर्वदे। सर्व भूत हितार्थाय, वसु सृष्टिं सदा कुरुं।।
लक्ष्मी मां चालीसा जानें :
दोहा :
मातु लक्ष्मी करि कृपा, करो हृदय में वास।
मनोकामना सिद्घ करि, परुवहु मेरी आस॥
सोरठा :
यही मोर अरदास, हाथ जोड़ विनती करुं।
सब विधि करौ सुवास, जय जननि जगदंबिका॥
चौपाई :
सिन्धु सुता मैं सुमिरौ तोही। ज्ञान बुद्घि विघा दो मोही॥
लक्ष्मी मां चालीसा :
तुम समान नहिं कोई उपकारी। सब विधि पुरवहु आस हमारी॥
जय जय जगत जननि जगदम्बा । सबकी तुम ही हो अवलम्बा॥
तुम ही हो सब घट घट वासी। विनती यही हमारी खासी॥
जगजननी जय सिन्धु कुमारी। दीनन की तुम हो हितकारी॥
विनवौं नित्य तुमहिं महारानी। कृपा करौ जग जननि भवानी॥
केहि विधि स्तुति करौं तिहारी। सुधि लीजै अपराध बिसारी॥
कृपा दृष्टि चितववो मम ओरी। जगजननी विनती सुन मोरी॥
ज्ञान बुद्घि जय सुख की दाता। संकट हरो हमारी माता॥
क्षीरसिन्धु जब विष्णु मथायो। चौदह रत्न सिन्धु में पायो॥
चौदह रत्न में तुम सुखरासी। सेवा कियो प्रभु बनि दासी॥
जब जब जन्म जहां प्रभु लीन्हा। रुप बदल तहं सेवा कीन्हा॥
स्वयं विष्णु जब नर तनु धारा। लीन्हेउ अवधपुरी अवतारा॥
तब तुम प्रगट जनकपुर माहीं। सेवा कियो हृदय पुलकाहीं॥
अपनाया तोहि अन्तर्यामी। विश्व विदित त्रिभुवन की स्वामी॥
तुम सम प्रबल शक्ति नहीं आनी। कहं लौ महिमा कहौं बखानी॥
मन क्रम वचन करै सेवकाई। मन इच्छित वांछित फल पाई॥
तजि छल कपट और चतुराई। पूजहिं विविध भांति मनलाई॥
और हाल मैं कहौं बुझाई। जो यह पाठ करै मन लाई॥
ताको कोई कष्ट नोई। मन इच्छित पावै फल सोई॥
त्राहि त्राहि जय दुःख निवारिणि। त्रिविध ताप भव बंधन हारिणी॥
जो चालीसा पढ़ै पढ़ावै। ध्यान लगाकर सुनै सुनावै॥
ताकौ कोई न रोग सतावै। पुत्र आदि धन सम्पत्ति पावै॥
पुत्रहीन अरु संपति हीना। अन्ध बधिर कोढ़ी अति दीना॥
विप्र बोलाय कै पाठ करावै। शंका दिल में कभी न लावै॥
पाठ करावै दिन चालीसा। ता पर कृपा करैं गौरीसा॥
सुख सम्पत्ति बहुत सी पावै। कमी नहीं काहू की आवै॥
बारह मास करै जो पूजा। तेहि सम धन्य और नहिं दूजा॥
प्रतिदिन पाठ करै मन माही। उन सम कोइ जग में कहुं नाहीं॥
बहुविधि क्या मैं करौं बड़ाई। लेय परीक्षा ध्यान लगाई॥
करि विश्वास करै व्रत नेमा। होय सिद्घ उपजै उर प्रेमा॥
जय जय जय लक्ष्मी भवानी। सब में व्यापित हो गुण खानी॥
तुम्हरो तेज प्रबल जग माहीं। तुम सम कोउ दयालु कहुं नाहिं॥
मोहि अनाथ की सुधि अब लीजै। संकट काटि भक्ति मोहि दीजै॥
भूल चूक करि क्षमा हमारी। दर्शन दजै दशा निहारी॥
बिन दर्शन व्याकुल अधिकारी। तुमहि अछत दुःख सहते भारी॥
नहिं मोहिं ज्ञान बुद्घि है तन में। सब जानत हो अपने मन में॥
रूप चतुर्भुज करके धारण। कष्ट मोर अब करहु निवारण॥
केहि प्रकार मैं करौं बड़ाई। ज्ञान बुद्घि मोहि नहिं अधिकाई॥
दोहा :
त्राहि त्राहि दुख हारिणी, हरो वेगि सब त्रास। जयति जयति जय लक्ष्मी, करो शत्रु को नाश॥
रामदास धरि ध्यान नित, विनय करत कर जोर। मातु लक्ष्मी दास पर, करहु दया की कोर॥
लक्ष्मी मां के टॉप मंदिर जानें :
- पद्मावती का मंदिर : तिरुपति
- स्वर्ण मंदिर : तमिलनाडु
- पद्मनाभस्वामी मंदिर : केरल
- महालक्ष्मी मंदिर : मुंबई
- महालक्ष्मी मंदिर : कोल्हापुर
- लक्ष्मीनारायण मंदिर : दिल्ली
- महालक्ष्मी मंदिर : इंदौर
- चौरासी मंदिर : हिमाचल प्रदेश
- लक्ष्मीनारायण मंदिर : चंबा
- अष्टलक्ष्मी मंदिर : चेन्नई