महाराणा प्रताप का इतिहास जानें :
महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया (ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया रविवार, विक्रम संवत 1597 तदनुसार 9 मई 1540 – 19 जनवरी 1597) उदयपुर मेवाड़ में सिसोदिया राजवंश के राजा थे। महाराणा प्रताप का नाम इतिहास में वीरता, शौर्य, त्याग, पराक्रम और दृढ प्रण के लिये आज भी अमर है। उन्होंने मुगल बादशाह अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और कई सालों तक घोर संघर्ष किया और अंततः अकबर महाराणा प्रताप को अधीन करने मैं असफल रहा। महाराणा प्रताप की नीतियां शिवाजी महाराज से लेकर ब्रिटिश के खिलाफ बंगाल के स्वतंत्रता सेनानियों के लिए प्रेरणा बनीं थी।
महाराणा प्रताप का जन्म वर्तमान राजस्थान के कुम्भलगढ़ में महाराणा उदयसिंह एवं माता रानी जयवन्ताबाई के घर हुआ था। लेखक जेम्स टॉड के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म मेवाड़ के कुम्भलगढ में हुआ था। इतिहासकार विजय नाहर के अनुसार राजपूत समाज की परंपरा व महाराणा प्रताप की जन्म कुण्डली व कालगणना के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म पाली के राजमहलों में हुआ था।महाराणा प्रताप का जन्म पाली जिले में हुआ था तथा ननिहाल भी पाली में था।
- महाराणा प्रताप के भाई : 11 भाई
- महाराणा प्रताप के के पिता : महाराणा उदय सिंह द्वितीय
- महाराणा प्रताप जयंती : 9 मई
- महाराणा प्रताप "सिसोदिया राजवंश" से थे
- महाराणा प्रताप की पत्नी : महारानी अजबदे
- महाराणा प्रताप के बच्चे : अमर सिंह प्रथम, भगवान दास
- महाराणा प्रताप का जन्म : 9 मई 1540
- महाराणा प्रताप का जन्म स्थान : कुम्भलगढ़, राजस्थान
- महाराणा प्रताप की मृत्यु : 29 जनवरी 1597
- महाराणा प्रताप का मृत्यु स्थान : चावंड
महाराणा प्रताप का जन्म :
महाराणा प्रताप के जन्म पर दो धारणाएँ है। जिसमे एक में महाराणा प्रताप का जन्म कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ था क्योंकि महाराणा उदयसिंह एवम जयवंताबाई का विवाह कुंभलगढ़ महल में हुआ था। और दूसरा उनका जन्म पाली के राजमहलों में हुआ।
महाराणा प्रताप की माता का नाम जयवंता बाई था जो पाली के सोनगरा अखैराज की बेटी थी। महाराणा प्रताप का बचपन भील समुदाय के साथ बिता तथा भीलों के साथ ही वे युद्ध कला सीखते थे और भील अपने पुत्र को कीका के नाम से पुकारते है इसलिए भील महाराणा को कीका नाम से बुलाते थे। महाराणा प्रताप की जयंती विक्रमी संवत कैलेंडर के अनुसार प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाते है।
लेखक विजय नाहर की पुस्तक हिन्दुवा सूर्य महाराणा प्रताप के अनुसार जब महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था उस समय उदयसिंह युद्व और असुरक्षा से घिरे थे।और कुंभलगढ़ किसी तरह से सुरक्षित नही था। जोधपुर के शक्तिशाली राठौड़ी राजा मालदेव उन दिनों उत्तर भारत मे शक्तिसम्पन्न थे। एवं जयवंता बाई के पिता और पाली के शाषक सोनगरा अखेराज मालदेव का एक विश्वसनीय सामन्त एवं सेनानायक था।
इसी कारण पाली और मारवाड़ सुरक्षित था और रणबंका राठौड़ो की कमध्व्ज सेना के सामने अकबर की शक्ति कम थी तो जयवंता बाई को पाली भेजा गया। वि. सं. ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया सं 1597 को महाराणा प्रताप का जन्म पाली मारवाड़ में हुआ था। प्रताप के जन्म का समाचार मिलते ही उदयसिंह की सेना ने प्रयाण प्रारम्भ कर दिया और मावली युद्ध मे बनवीर के विरूद्ध विजय श्री प्राप्त कर चित्तौड़ के सिंहासन पर अपना अधिकार कर लिया।
भारतीय प्रशासनिक सेवा से सेवानिवत्त अधिकारी देवेंद्र सिंह शक्तावत की पुस्तक महाराणा प्रताप के प्रमुख सहयोगी के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म स्थान महाराव के गढ़ के अवशेष जूनि कचहरी पाली में हुआ है। यहां सोनागरों की कुलदेवी नागनेची का मंदिर आज भी सुरक्षित है।
महाराणा प्रताप का निजी और प्रारंभिक जीवन :
महाराणा प्रताप की पहली रानी का नाम अजबदे पुनवार था। तथा इनके दो पुत्र अमर सिंह और भगवान दास थे। अमर सिंह ने महाराणा प्रताप के देहांत के बाद राजगद्दी संभाली थी। महाराणा प्रताप की 10 और पत्नियां भी थी और कुल 17 पुत्र और 5 पुत्रियां थीं। महाराणा प्रताप के पिता राणा उदय सिंह की और भी पत्नियाँ थी जिनमें रानी धीर बाई उदय सिंह की प्रिय पत्नी थी।
रानी धीर बाई जिसे राज्य के इतिहास में रानी भटियाणी के नाम से जाना जाता है रानी धीर बाई की मंशा थी कि उनका पुत्र जगमाल राणा उदय सिंह का उत्तराधिकारी बने। और उनके जगमाल राणा के आलावा दो पुत्र शक्ति सिंह और सागर सिंह भी थे। लेकिन प्रजा और राणा जी दोनों ही महाराणा प्रताप को ही उत्तराधिकारी के तौर पर मानते थे। इसी कारण यह तीनो भाई प्रताप से घृणा करते थे।
महाराणा प्रताप का प्रथम राज्याभिषेक मेंं 28 फरवरी 1572 में गोगुन्दा में हुआ था लेकिन विधि विधानस्वरूप महाराणा प्रताप का द्वितीय राज्याभिषेक 1572 ई. में कुुंभलगढ़़ दुुर्ग में हुआ दुसरे राज्याभिषेक में जोधपुर केराठौड़ शासक राव चन्द्रसेेन भी उपस्थित थे।
महाराणा प्रताप की सभी पत्नियां और पुत्र :
- महारानी अजबदे पंवार : अमरसिंह और भगवानदास
- अमरबाई राठौर : नत्था
- शहमति बाई हाडा : पुरा
- अलमदेबाई चौहान : जसवंत सिंह
- रत्नावती बाई परमार : माल,गज,क्लिंगु
- लखाबाई : रायभाना
- जसोबाई चौहान : कल्याणदास
- चंपाबाई जंथी : कल्ला, सनवालदास और दुर्जन सिंह
- सोलनखिनीपुर बाई : साशा और गोपाल
- फूलबाई राठौर : चंदा और शिखा
- खीचर आशाबाई : हत्थी और राम सिंह
महाराणा प्रताप के शासनकाल में सबसे रोचक बात यह है कि मुगल सम्राट अकबर बिना युद्ध के महाराणा प्रताप को अपने अधीन लाना चाहता था इसलिए अकबर ने महाराणा प्रताप को समझाने के लिए चार राजदूत नियुक्त किए थे जिसमें सर्वप्रथम सितम्बर 1572 ई. में जलाल खाँ प्रताप के खेमे में गया और इसी क्रम में मानसिंह (1573 ई. में), भगवानदास (सितम्बर, 1573 ई.) और राजा टोडरमल (दिसम्बर,1573 ई.) में महाराणा प्रताप को समझाने के लिए गये थे लेकिन महाराणा प्रताप ने चारों को निराश किया और इस तरह महाराणा प्रताप ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया जिसके बाद हल्दी घाटी का ऐतिहासिक युद्ध हुआ।
महाराणा प्रताप का सैन्य कैरियर :
महाराणा प्रताप की वीरता की कहानी इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित की गई है।
राजस्थान के मेवाड़ में जन्मे महाराणा प्रताप को भारत के महान योद्धाओं में से एक के रूप में माना जाता है। शक्तिशाली मुगल साम्राज्य के खिलाफ अपने राज्य की रक्षा करने और उसकी स्वतंत्रता को बनाए रखने के उनके दृढ़ संकल्प ने उन्हें भारतीय इतिहास में एक प्रतिष्ठित व्यक्ति बना दिया है। हल्दीघाटी के युद्ध के दौरान उनका साहस सबसे ज्यादा चमका जहाँ पर उन्होंने सम्राट अकबर की विशाल सेना का सामना किया जिसमें उनकी सेना संख्या में बहुत कम थी। इतनी बाधाओं के बावजूद महाराणा प्रताप ने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए बहादुरी से लड़ाई लड़ी। और जब युद्ध भयंकर हो गया तो उनके वफादार घोड़े चेतक ने उन्हें भागने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
वफादारी और बहादुरी के एक असाधारण कार्य में चेतक ने महाराणा प्रताप को सुरक्षित रूप से ले जाने के लिए एक विस्तृत नाले को पार किया लेकिन कुछ ही समय बाद अपनी चोटों के कारण चेतक ने दम तोड़ दिया।
हल्दीघाटी का युद्ध (1576) :
18 जून 1576 को हल्दीघाटी का युद्ध महाराणा प्रताप से जुड़ा सबसे प्रसिद्ध संघर्ष है। इस युद्ध में प्रताप का सामना अंबर के मान सिंह की कमान वाली मुगल सेना से हुआ। हालाँकि प्रताप की सेना संख्या में कम थीं फिर भी उन्होंने जमकर लड़ाई लड़ी थी। यह युद्ध हल्दीघाटी दर्रे के पास हुआ था जो अरावली पहाड़ियों में एक संकीर्ण और रणनीतिक स्थान है। महाराणा प्रताप की बहादुरीपूर्ण रक्षा के बावजूद मुगलों ने युद्ध के मैदान में जीत हासिल की थी। और महाराणा प्रताप का घोड़ा "चेतक" राजा के पीछे हटने के दौरान उनके जीवन को बचाने के अपने वीर प्रयासों के लिए एक किंवदंती बन गया था। भले ही मुगलों ने जीत का दावा किया लेकिन युद्ध ने साबित कर दिया था कि महाराणा प्रताप एक अदम्य शक्ति थे और अकबर के सामने झुकने को तैयार नहीं थे।
दिवेर का युद्ध (1582) :
हल्दीघाटी में मिली हार के बाद महाराणा प्रताप ने हार नहीं मानी। और 1582 में उन्होंने दिवेर की लड़ाई लड़ी जो मेवाड़ के लिए एक महत्वपूर्ण जीत थी। तथा महाराणा प्रताप ने अपनी गुरिल्ला रणनीति और इलाके के ज्ञान के साथ मुगल सेना को मात दी और जीत हासिल की और महत्वपूर्ण क्षेत्र को पुनः प्राप्त कर लिया था। इस जीत ने महाराणा प्रताप को अपने लोगों का मनोबल फिर से हासिल करने और मेवाड़ के कुछ हिस्सों पर अपना शासन स्थापित करने में मदद की थी।
खिमसर का युद्ध (1584) :
महाराणा प्रताप ने 1584 में राजस्थान के एक क्षेत्र खिमसर में मुगलों के खिलाफ एक और लड़ाई लड़ी। हालाँकि लड़ाई का कोई निर्णायक नतीजा नहीं निकला लेकिन महाराणा प्रताप ने अपनी दृढ़ता दिखाना जारी रखा। जिस कारण मुगल सेना को इस क्षेत्र में उनकी ताकत और उपस्थिति को स्वीकार करने के लिए मजबूर होना पड़ा। और गुरिल्ला युद्ध में उनकी बार-बार की सफलताओं ने मेवाड़ को जीतने के मुगल प्रयासों को और भी कमजोर कर दिया था।
राकेम का युद्ध (1597) :
महाराणा प्रताप ने 1597 में राकेम की लड़ाई लड़ी जहाँ उन्होंने मुगलों से अपने राज्य के महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर सफलतापूर्वक नियंत्रण हासिल कर लिया था। इस लड़ाई ने मुगल सेना को कमजोर करने के लिए आश्चर्य और तेज हमलों के तत्व का उपयोग करके खोए क्षेत्र को पुनः प्राप्त करने की महाराणा प्रताप की क्षमता को और प्रदर्शित किया। उनके रणनीतिक नेतृत्व ने सुनिश्चित किया कि मेवाड़ मुगल साम्राज्य के लिए एक दुर्जेय विरोधी बना रहे है।
मुगलों के साथ शांति (1600 का दशक) :
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में महाराणा प्रताप ने मुगलों के आक्रमण से मेवाड़ की रक्षा करना जारी रखा। और उन्होंने 1597 के बाद किसी और बड़े पैमाने की लड़ाई में भाग नहीं लिया लेकिन उनके नेतृत्व और दृढ़ता ने राज्य को पूर्ण मुगल वर्चस्व से मुक्त रखा। 1597 में महाराणा प्रताप का निधन हो गया था।
महाराणा प्रताप का भाला :
महाराणा प्रताप के भाले का वजन लगभग 81 किलोग्राम और भाले के अलावा उनके कवच का वजन लगभग 72 किलोग्राम था जिससे उनका कुल युद्ध उपकरण अविश्वसनीय रूप से भारी हो गया था। इसके बावजूद उन्होंने बेजोड़ सहनशक्ति और कौशल का प्रदर्शन करते हुए युद्ध के मैदान में बहादुरी से लड़ाई लड़ी।
महारणा प्रताप का प्रिय घोड़ा चेतक :
चेतक महाराणा प्रताप का प्रिय घोड़ा था। चेतक में संवेदनशीलता, वफ़ादारी और बहादुरी भरमार थी। यह नील रंग का अफ़गानी घोड़ा था। और वह हवा से बाते करता था। चेतक की बदौलत उन्होंने अनगिनत युद्ध जीते थे। हल्दी घाटी के युद्ध में चेतक काफी घायल हो गया था। लड़ाई के दौरान एक बड़े नाले को (लगभग 21 फिट की चौड़ाई ) लांघना था। और चेतक महाराणा प्रताप की रक्षा के लिए उस दूरी को लांघ देता है लेकिन घायल होने के कारण कुछ दुरी के बाद अपने प्राण त्याग देता हैं। 21 जून 1576 को चेतक प्रताप का साथ छोड़ जाता है।
महाराणा प्रताप का निधन :
महाराणा प्रताप का निधन 57 वर्ष की आयु में 19 जनवरी 1597 को हुआ था। वह जंगल में एक एक दुर्घटना की वजह से घायल हो गए थे। और कई इतिहासकारों के अनुशार हल्दीघाटी के युद्ध के बाद महाराणा प्रताप ने मेवाड़ धरा को स्वतंत्र कराया था।
महाराणा प्रताप की मृत्यु पर अकबर :
महाराणा प्रताप का सबसे बड़ा शत्रु अकबर था पर उनकी यह लड़ाई कोई व्यक्तिगत द्वेष का परिणाम नहीं थी बल्कि सिद्धान्तों और मूल्यों की लड़ाई थी। एक अकबर था जो अपने क्रूर साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था जब की दूसरी तरफ महाराणा प्रताप थे जो अपनी भारत मातृभूमि की स्वाधीनता के लिए संघर्ष कर रहे थे। लेकिन महाराणा प्रताप की मृत्यु पर अकबर को दुःख हुआ क्योंकि ह्रदय से वो महाराणा प्रताप के गुणों के प्रशंसक थे और अकबर जानता था की महाराणा प्रताप जैसा वीर कोई नहीं है।
महाराणा प्रताप की मृत्यु के समय अकबर लाहौर में था और वहीं सूचना मिली थी। तब अकबर की उस समय की मनोदशा पर अकबर के दरबारी दुरसा आढ़ा ने राजस्थानी छन्द में लिखा :-
अस लेगो अणदाग पाग लेगो अणनामी
गो आडा गवड़ाय जीको बहतो घुरवामी।।
नवरोजे न गयो न गो आसतां नवल्ली
न गो झरोखा हेठ जेठ दुनियाण दहल्ली।।
गहलोत राणा जीती गयो दसण मूंद रसणा डसी
निसा मुक भरिया नैण तो मृत शाह प्रतापसी ।।